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दुर्गा दास--मुंशी प्रेमचंद


अध्याय-३


खुदाबख्श ने नाथू को जीता देख ईश्वर को धन्यवाद दिया और घाव धोकर पट्टी बांधी। फिर बोला भाई! मुझसे डरो मत, मैं वह मुसलमान नहीं जो किसी का बुरा चेतूं। आखिर एक दिन खुदा को मुंह दिखाना है। मेरे लायक जो काम हो, वह बतलाओ। मुझे अपना भाई समझो। नाथू बड़ा प्रसन्न हुआ। मां जी की लोथ एक कोठरी में रखकर फिर दोनों ने मिलकर महासिंह को कुएं से निकाला। बाहर की वायु लगने से धीरे-धीरे महासिंह भी चैतन्य हो गया। नाथू ने दुर्गादास का वन जाना, मुसलमानों का धावा, मां जी का मरना और खुदाबख्श की कृति संक्षेप में कह सुनाई। महासिंह की आंखों में जल भर गया। कहने लगा नाथू! यह सब मुझ अभागे के कारण हुआ। अच्छा होता, कि मैं वहीं मारा जाता तो अपने आदमियों की यह दशा तो न देखता।

नाथू बोला महाराज, जो होना था।, हो लिया। अब आप खुदाबख्श के साथ माड़ों जाइए। और मैं स्वामी के पास जाता हूं। खुदाबख्श ने कहा – ‘नाथू हो सके तो मुझे दूसरे कपड़े ला दो, जिसमें हमें कोई पहचान न सके। नहीं तो हमारी खैरियत नहीं। नाथू ने एक जोड़ा कपड़ा और दो घोड़े ला दिये। महासिंह लोहे की संदूकची लेकर, खुदाबख्श के साथ माड़ों चल दिया, और नाथू अरावली की पहाड़ियों में घूमने लगा। एक तो बूढ़ा, दूसरे घाव, तीसरे पहाड़ियों का चढ़ना; नाथू एक जगह बैठ गया। सोचने लगा परमात्मा! यह दो ही दिन में क्या हो गया? हम जहां कल आनन्द करते थे, आज वही राज-भवन श्मशान हो गया। जिसकी धाक सारे मारवाड़ में थी, आज न जाने किस पहाड़ी की गुफा में छिपा पड़ा है। बूढ़ी मां जी की लोथ घर में पड़ी सड़ रही है। हाय! जिसके बेटे का सामना बड़े-बड़े शूरवीर नहीं कर सकते थे, उसकी यह दशा! एक दुष्ट गीदड़ के हाथों मारी जाय! प्रभु, तेरी लीला अद्भुत है! आज ही मेरे स्वामी ने मुझे वृद्ध मां जी की सेवा सौंपी थी। और मैं आज ही उनके मरने का समाचार लेकर जाता हूं। हाय! स्वामी के पूछने पर मैं क्या उत्तर दूंगा? कैसे कहूंगा, वृद्ध मां जी को दुष्ट शमशेर खां ने मेरे जीते-जी मार डाला। हे प्रभु! यह कहने के पहले ही मैं मर क्यों न जाऊं? नहीं! नहीं! यदि मर जाता हूं तो स्वामी को दुष्ट का नाम कौन बतायेगा? हाय! अभागे नाथू! यह कहते-कहते वह अचेत हो गया। दुखियों पर दया करने वाली निद्रा देवी ने उसे अपनी गोद में लिटा लिया और वायु ने अपने कोमल झकोरों से थपककर सुला दिया। सवेरा हुआ, नाथू उठ बैठा और एक बहते हुए झरने से जल लेकर हाथ-मुंह धोया। ईश्वर की प्रार्थना कर एक ओर चल दिया, दोपहर होते-होते उस पहाड़ी पर पहुंचा, जहां दुर्गादास छिपा था।अपना परिचय देने के लिए राजपूती तलवार का बखान करते हुए मारू रागिनी गाई, जिसे सुनकर वीर दुर्गादास गुफा से बाहर निकला नाथू ने अपने स्वामी को देखा, तो दौड़कर चरणों पर गिर पड़ा। दुर्गादास ने पूछा नाथू हमारी मांजी तो कुशल से हैं?

नाथू ने इस प्रश्न को टालकर कहा – ‘महाराज कल ही आपके चले आने के बाद महासिंह जी को कुएं से निकाला, वे जीवित थे। लोहे वाली पेटी लेकर माड़ों चले गये और (अंगूठी देकर) चलते समय यह अमूल्य अंगूठी देकर कहा – ‘नाथू, यह अंगूठी अपने स्वामी को देना और कहना जिसके द्वारा यह अंगूठी मेरे पास भेजी जायगी, मैं उसके आज्ञानुसार अपने प्राण भी दे सकूंगा। जसकरण और तेजकरण दोनों माता के कुशल समाचार के लिए व्याकुल थे। बोले नाथू! और बातें पीछे करना। पहले मां जी की कुशल कह। नाथू सूख गया, आंखों में आंसू भर गये। दुर्गादास ने घबड़ाकर कहा – ‘नाथू! क्यों? बोलता क्यों नहीं? क्या हुआ? शीघ्र कह। नाथू ने रो-रोकर शोक वृत्ताान्त विस्तार सहित कह सुनाया। और शमशेर खां की तलवार आगे फेंक दी।

दुर्गादास की आंखें क्रोध से लाल हो गयीं। तलवार हाथ में उठा ली और बोला हे, सर्वशक्तिमान् जगत के साक्षी! मैं आपके सामने सौगन्ध लेता हूं, जिस पापी ने हमारी निर्दोष वृद्ध माता को मारा है, उसे इसी तलवार से मारकर जब तक रक्त का बदला न ले लूंगा, जलपान न करूंगा, नाथू ने कांपते स्वर में कहा – ‘हां, हां, स्वामी! यह क्या करते हैं? मुगल बहुत हैं और आप अकेले, यदि आज ही बदला न मिल सका, तो कब तक आप बिना जलपान के रहेंगे? दुर्गादास बोला नाथू! नाथू! तू भूलता है। मैं अकेला नहीं, मेरा सत्य, मेरा प्रभु मेरे साथ है। सत्य की सदैव जय होती है।अबला पर हाथ उठानेवाला बहुत दिन जीवित नहीं रह सकता। ईश्वर ने चाहा, तो आज ही माता के ऋण से उऋण हो जाऊंगा। यदि ऐसा न किया गया, तो एक देश पर प्राण देने वाली क्षत्रणी की गति कदापि न होगी।

क्रमशः...

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